मुस्लिम सियासत का चेहरा माने जाने वाले असदुद्दीन ओवैसी इस बार बिहार के चुनावी मैदान में अपनी सियासी चाल बदलकर उतरे हैं. ओवैसी की पहले कोशिश थी कि विपक्षी महागठबंधन में शामिल होकर चुनाव लड़ा जाए, लेकिन आरजेडी और कांग्रेस के इनकार के बाद AIMIM ने पहले अकेले और फिर छोटे दलों के साथ मिलकर किस्मत आजमाने का फैसला किया.
बिहार विधानसभा चुनाव के लिए AIMIM ने 25 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे हैं. इस बार सीमांचल ही नहीं, बल्कि उत्तर और दक्षिण बिहार की सीटों पर भी अपने उम्मीदवार उतारे हैं. ओवैसी ने मुसलमानों के साथ-साथ हिंदू कैंडिडेट भी उतारे हैं. इस तरह बदले हुए सियासी तेवर के साथ उतरे ओवैसी क्या 2020 जैसा करिश्मा AIMIM दोहरा पाएगी?
असदुद्दीन ओवैसी ने अपने उम्मीदवारों की लिस्ट जारी करते हुए कहा था कि AIMIM की बिहार इकाई ने राष्ट्रीय नेतृत्व से सलाह-मशविरा करके कैंडिडेट की सूची जारी की है. हम बिहार के सबसे कमज़ोर और सबसे उपेक्षित लोगों के लिए न्याय की आवाज़ बनेंगे.
महागठबंधन से इनकार के बाद AIMIM ने 100 सीटों पर चुनाव लड़ने का ऐलान किया था, लेकिन सिर्फ 25 सीटों पर ही उम्मीदवार उतार सकी है. AIMIM ने अपने मौजूदा विधायक अख्तरुल ईमान को अमौर से टिकट देने के साथ पूर्व सांसद मुनजिर हसन को मुंगेर से प्रत्याशी बनाया है. इसके अलावा चार बार के पूर्व विधायक तौसीफ आलम को बहादुरगंज सीट से उम्मीदवार बनाया है. इस बार असदुद्दीन ओवैसी ने अपने 25 उम्मीदवारों में 23 मुस्लिम तो दो हिंदू उम्मीदवार भी दिए हैं.
ओवैसी की बदली हुई सियासत
बिहार में ओवैसी ने जिस तरह मुस्लिमों के साथ-साथ हिंदू प्रत्याशी दिए हैं, वह उनका बदला हुआ सियासी रुख दर्शा रहा है. पूर्व सांसद सीताराम सिंह के बेटे राणा रंजीत सिंह को ढाका सीट से टिकट दिया है, तो मनोज कुमार दास को सिकंदरा सीट से उम्मीदवार बनाया है. राणा रंजीत सिंह राजपूत समुदाय से हैं तो मनोज कुमार दलित समुदाय से हैं.
2020 में ढाका और सिकंदरा से ओवैसी ने उम्मीदवार नहीं उतारे थे, क्योंकि उनके गठबंधन सहयोगी रहे उपेंद्र कुशवाहा के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय लोक समता पार्टी ने इन दोनों सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे. ढाका सीट बीजेपी ने जीती थी, जबकि सिकंदरा सीट उसके एनडीए सहयोगी जीतन राम मांझी की पार्टी ने जीती थी. इस बार ओवैसी ने दोनों ही सीटों पर हिंदू कैंडिडेट उतारकर सियासी गेम अपने नाम करने का दांव चला है.
सीमांचल से बाहर तलाश रहे ज़मीन
असदुद्दीन ओवैसी ने पिछली बार सीमांचल के इलाके की 19 सीटों पर चुनाव लड़ा था, जिनमें से पांच सीटों पर जीत दर्ज करने में कामयाब रहे. हालांकि, बाद में उनके चार विधायकों ने AIMIM छोड़कर आरजेडी जॉइन कर ली थी. अब ओवैसी ने सीमांचल के किशनगंज, पूर्णिया, अररिया और कटिहार जिले की सीटों पर चुनाव लड़ने से लेकर उत्तर और दक्षिण बिहार की सीटों पर चुनाव लड़ने का दांव चला है। यह पार्टी विस्तार करने के उनके इरादे को दर्शाता है.
ओवैसी ने बिहार की दरभंगा, सीवान, मुंगेर और भागलपुर इलाके से अपने उम्मीदवार उतारे हैं। ओवैसी ने नरकटिया, गोपालगंज, जोकीहाट, ठाकुरगंज, किशनगंज, बैसी, शेरघाटी, नाथनगर, सीवान, केवटी, जाले, नवादा, मधुबनी, दरभंगा ग्रामीण, गौरबौरम, कसबा, अररिया, बाफरी और कोचाधामन सीट पर प्रत्याशी उतारे हैं.
ओवैसी का बिहार में नया गठबंधन
महागठबंधन में शामिल होने की उम्मीदों पर पानी फिरने के बाद असदुद्दीन ओवैसी ने चंद्रशेखर आज़ाद की आज़ाद समाज पार्टी (कांशी राम) और स्वामी प्रसाद मौर्य की अपनी जनता पार्टी (एजेपी) के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ने का फैसला किया. इसमें एआईएमआईएम 35 सीटों पर चुनाव लड़ने, जबकि चंद्रशेखर आज़ाद की पार्टी 25 और स्वामी प्रसाद की पार्टी चार सीटों पर चुनाव लड़ने का निर्णय किया गया था. इसके बाद भी ओवैसी 25 सीटों पर ही अपने उम्मीदवार उतार सके हैं, लेकिन पिछली बार की तरह न ही ओवैसी खुद सक्रिय हैं और न ही उनकी टीम बिहार में दिख रही है.
AIMIM 2020 जैसी सीटें जीत पाएगी?
बिहार का चुनाव इस बार काफी अलग है. बिहार का चुनाव एनडीए और इंडिया ब्लॉक के बीच सिमटता जा रहा है, जिसके चलते एआईएमआईएम की सियासी राह काफी मुश्किल दिख रही है. आरजेडी और कांग्रेस का बिहार में कोर वोटबैंक मुस्लिम है और ओवैसी की नज़र भी मुस्लिमों पर ही टिकी है.
आरजेडी की पूरी कोशिश मुस्लिम वोटों को एकमुश्त अपने साथ बांधकर रखने की है, जिसके लिए तेजस्वी यादव वक्फ कानून का विरोध करने को लेकर पसमांदा मुस्लिमों तक को साधने में जुटे हैं. इसके अलावा राहुल गांधी ने सीएए-एनआरसी के मुद्दे पर ‘वोट अधिकार यात्रा’ निकालकर मुस्लिमों को अपने पक्ष में लामबंद करते नज़र आए हैं.
राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो असदुद्दीन ओवैसी का बिहार में कोई ज़मीनी आधार नहीं है, बल्कि उनकी पकड़ सीमांचल के इलाके की कुछ सीटों तक पर ही रही है. राहुल गांधी की वोट अधिकार यात्रा के बाद सीमांचल का माहौल इंडिया ब्लॉक के पक्ष में हुआ है.
महागठबंधन बनाम एनडीए की सीधी जंग में मुसलमानों का झुकाव महागठबंधन की तरफ होगा. इस बार का चुनाव काफी अलग है। ऐसे में ओवैसी की पार्टी को अपनी सियासी उम्मीदें धूमिल होती दिख रही हैं, जिसके चलते उनकी पार्टी बेचैन है.
हैदराबाद से बाहर ओवैसी ने जहां भी अपनी सियासी जगह बनाई है, वहां खुद की राजनीति के दम पर नहीं, बल्कि किसी न किसी पार्टी की बैसाखी के सहारे जीते हैं. 2020 में बिहार में उपेंद्र कुशवाहा और बसपा से गठबंधन करने पर पांच सीटें एआईएमआईएम ने जीती थीं और महाराष्ट्र में प्रकाश अंबेडकर के साथ गठबंधन कर जीत दर्ज की थी ऐसे में बिहार में ओवैसी चंद्रशेखर आज़ाद और स्वामी प्रसाद मौर्य के साथ मिलकर चुनाव मैदान में उतरे हैं, लेकिन दोनों सहयोगी दलों का कोई भी असर बिहार की राजनीति में नहीं है,.
सीमांचल का बदल रहा सियासी गेम?
बिहार का सीमांचल का इलाका असम और पश्चिम बंगाल से सटा हुआ है। मुस्लिम बहुल होने के चलते ओवैसी ने बिहार में इसी सीमांचल इलाके को अपनी सियासत की प्रयोगशाला बनाया, क्योंकि यहां पर 40 से 70 फ़ीसदी तक मुस्लिम आबादी है. 2020 के चुनाव में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम के चलते बीजेपी सीमांचल में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी.
मुस्लिम वोटों के दम पर 2020 में ओवैसी ने कांग्रेस और आरजेडी का खेल बिगाड़ दिया था, जिससे बीजेपी को अप्रत्याशित लाभ मिला. 2020 में ओवैसी ने जिस तरह से सीमांचल पर फोकस किया था, उस तरह से इस बार उनकी सक्रियता नहीं दिखती.
2020 में मुस्लिम समाज ने बड़ी उम्मीद के साथ उन्हें वोट दिया था, लेकिन देखा कि उससे सियासी लाभ बीजेपी को मिला है। इसके चलते ही बाद में एआईएमआईएम से जीते चार विधायकों ने आरजेडी का दामन थाम लिया था.
AIMIM से क्या मुस्लिमों का मोहभंग हो रहा?
बिहार चुनाव एनडीए और इंडिया ब्लॉक के बीच सिमटता जा रहा है, जिसके चलते ही असदुद्दीन ओवैसी की राजनीति काफी मुश्किल भरी होती दिख रही है. ओवैसी 2020 की तरह चुनावी मैदान में नहीं दिख रहे हैं। यही नहीं, प्रदेश अध्यक्ष अख्तारुल ईमान और उनके करीबियों को लेकर भी लोगों में नाराज़गी साफ़ झलक रही है, टिकट बेचने से लेकर पार्टी को तानाशाही की तरह चलाने के आरोप लग रहे हैं.
2015 से अख्तारुल ईमान बिहार में AIMIM की कमान संभाल रहे हैं, जिसे लेकर भी लगातार सवाल उठाए जा रहे हैं. अख्तारुल ईमान के रवैए के चलते ही आरजेडी के 4 विधायकों ने पार्टी छोड़ी थी और इस बार भी टिकट वितरण पर सवाल खड़े हुए हैं. इसका असर अख्तारुल ईमान की सीट ही नहीं, बल्कि सीमांचल के पूरे इलाके में भी दिख रहा है.
मुस्लिम समुदाय भी ओवैसी के साथ जाकर देख लिया है, जिसके चलते मुसलमानों का AIMIM के पक्ष में झुकाव होना काफी मुश्किल दिख रहा है. इसके चलते माना जा रहा है कि 2020 जैसे नतीजे दोहराना आसान नहीं है.
