लोकतंत्र में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव तब तक संभव नहीं है जब तक कि मतदाता सूची विश्वसनीय न हो. भारत निर्वाचन आयोग के अनुसार, बिहार में 2003 के बाद से मतदाता सूची का कोई व्यापक पुनरीक्षण नहीं हुआ है. जिसके कारण कई गलतियां और अनियमितताएं देखने में आईं हैं. बिहार में करीब 8 करोड़ मतदाता हैं. मतदाता सूची में आम तौर पर कई तरह की त्रुटियां होती हैं जैसे कि डुप्लिकेट नाम, मृत व्यक्तियों के नाम, या अपात्र व्यक्तियों मतदाता सूची में होना आदि जो चुनावी प्रक्रिया की विश्वसनीयता को प्रभावित करती हैं. पर बिहार में इन सब के अलावा भी बहुत कुछ ऐसा है जो एक स्वस्थ लोकतंत्र में कतई नहीं होना चाहिए.
पुनरीक्षण का मुख्य उद्देश्य कई तरह की अनियमितताओं को दूर करना है. जैसे कुछ जिलों जैसे किशनगंज, अररिया, कटिहार और पूर्णिया में आधार कार्ड धारकों की संख्या आबादी से अधिक (100% से ऊपर) पाई गई है. जाहिर है कि यहां अवैध अप्रवासी हैं जो निश्चित रूप से फर्जी वोट भी बनवा लिए हैं.
इसमें कोई दो राय नहीं हो सकता कि ऐसे फर्जी वोटर्स का काम चुनावी प्रक्रिया की निष्पक्षता को भी प्रभावित करना होता है. पुनरीक्षण के माध्यम से, आयोग यह सुनिश्चित करता है कि केवल योग्य भारतीय नागरिक ही मतदान करें, जो संविधान के अनुच्छेद 326 के तहत निर्वाचन आयोग की जिम्मेदारी है. जाहिर है कि इसमें कोई बुराई नहीं है.
1- चार जिले जहां अवैध प्रवासियों ने डेमोग्रेफी ही बदल दी है, देश की सुरक्षा का सवाल है?
इससे कोई भी असहमत नहीं हो सकता कि पूर्ववर्ती सरकारों की लापरवाह नीतियों और चुनाव जीतने की रणनीति के तहत असम, पश्चिम बंगाल और झारखंड जैसे राज्यों के अलावा बिहार में भी बड़े पैमाने पर अवैध बांग्लादेशियों और रोहिंग्या को बसाया गया. बिहार के कुछ हिस्सों, खास तौर पर सीमांचल क्षेत्र – जो बंगाल और नेपाल से सटे हिस्सों की डेमोग्रेफी बदल चुकी है.
चार जिलों वाला यह क्षेत्र सिलीगुड़ी कॉरिडोर या चिकन नेक से सटा हुआ है, जहां बांग्लादेश का इलाका आता है. जाहि्र है कि यह देश की सुरक्षा से जुड़ा हुआ सवाल है. अगर वहां इनको वोट देने दिया गया तो यह क्रम रुकने वाला नहीं है. अभी 4 जिले इसकी चपेट में हैं. कल को यह और जिलों में फैलेगा.
किशनगंज, अररिया, कटिहार और पूर्णिया जैसे सीमांचल जिलों की जनसांख्यिकी ने बांग्लादेशियों को निर्बाध रूप से घुलने-मिलने में सक्षम बनाया है. इन जिलों को सीमांचल के रूप में पहचान देना भी एक साजिश के तहत किया गया है.
2020 के नेशनल हेराल्ड की रिपोर्ट के अनुसार, सीमांचल क्षेत्र बिहार का सबसे पिछड़ा और गरीब माना जाता है. यहां की आबादी 47% मुसलमानों की हिस्सेदारी हो चुकी है.जबकि पूरे बिहार राज्य का राज्यव्यापी औसत 17% है.
यह क्षेत्र बिहार की 243 सदस्यीय विधानसभा में 24 सीटों का योगदान देता है.
2-आधार को क्यों मानें निवास प्रमाण पत्र? कई जिलों में जनसंख्या से अधिक जारी है
चुनाव आयोग पर सबसे अहम आरोप यह है कि वह मतदाता सूची में नाम रजिस्टर्ड करने के लिए आधार कार्ड को जरूरी बना दिया है.
पुनरीक्षण का मुख्य उद्देश्य उन अनियमितताओं को दूर करना है. ये कितनी हास्यास्पद बात है कि कुछ जिलों जैसे किशनगंज, अररिया, कटिहार और पूर्णिया में आधार कार्ड धारकों की संख्या आबादी से अधिक (100% से ऊपर) पाई गई है, जो संभावित रूप से फर्जी या अपात्र और देशद्रोही मतदाताओं की उपस्थिति का संकेत देता है.
यह स्थिति न केवल मतदाता सूची की शुद्धता पर सवाल उठाती है, बल्कि चुनावी प्रक्रिया की निष्पक्षता को भी प्रभावित कर सकती है. पुनरीक्षण न होने पर तमाम ऐसे लोगों की भी एंट्री हो जाएगी जो देश का भला कभी नहीं चाहते हैं. चुनाव आयोग चाहता है कि केवल योग्य भारतीय नागरिक ही मतदान करें, जो संविधान के अनुच्छेद 326 के तहत निर्वाचन आयोग की जिम्मेदारी है.
8 जुलाई को इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, निवासियों के बीच निवास प्रमाण पत्र सबसे अधिक मांग वाला दस्तावेज बन गया है. रिपोर्ट में कहा गया है कि निवास प्रमाण पत्र आवेदक के आधार कार्ड के आधार पर जारी किए जा रहे हैं, जो स्वयं 11 दस्तावेजों की सूची में नहीं है.
इस सूची में आधार कार्ड, पैन और ड्राइविंग लाइसेंस शामिल नहीं हैं, जिनका उपयोग आमतौर पर पूरे भारत में पहचान प्रमाण के रूप में किया जाता है.इसका सीधा कारण यह है कि इनमें से कोई भी दस्तावेज नागरिकता का प्रमाण नहीं है.
चूंकि भारत में मतदान एक अधिकार है जो भारतीय होने के साथ आता है, इसलिए लोगों को यह साबित करने के लिए दस्तावेज प्रस्तुत करने होंगे कि वे नागरिक हैं।
सरकार द्वारा जारी पहचान पत्र या पेंशन भुगतान आदेश, जन्म प्रमाण पत्र, पासपोर्ट, मैट्रिकुलेशन प्रमाण पत्र, स्थायी निवास, जाति या वन अधिकार प्रमाण पत्र उन 11 दस्तावेजों में शामिल हैं जो जन्म तिथि और स्थान को साबित करने के लिए काम आएंगे।
3-विपक्षी दलों की समय सीमा वाली आपत्ति कितनी तार्किक?
विपक्षी दलों ने आम तौर पर जो एतराज जताएं हैं उन पर एनडीए के दलों की भी सहमति है.मतदाता सूचियों में गहन संशोधन सीमा अधिकतम तीन-चार महीने बहुत कम है. इसे और पहले करना चाहिए था या बाद में करना चाहिए.हालांकि, चुनाव आयोग को पूरा भरोसा है कि उसकी सुव्यवस्थित मशीनरी निर्धारित समयावधि में यह कार्य पूरा करने में सक्षम है.
चुनाव आयोग ने 6 जुलाई को कहा कि 77,895 ब्लॉक स्तरीय अधिकारियों (बीएलओ) के अलावा, प्रक्रिया को सुचारू और समय पर पूरा करने के लिए 20,603 बीएलओ नियुक्त किए जा रहे हैं. इसके अलावा सरकारी अधिकारियों और एनसीसी कैडेटों सहित चार लाख स्वयंसेवक की सहायता भी ली जा रही है.राजनीतिक दलों के 1.5 लाख बूथ स्तरीय एजेंट भी मदद कर रहे हैं.
1993 में तत्कालीन चुनाव आयुक्त टीएन शेषन भी कुछ ऐसा ही कर रहे थे जिसे उनकी सनक करार दिया गया था. विपक्ष और सरकार दोनों को ही लग रहा था कि दो साल के अंदर संभव नहीं होगा कि पूरे देश को मतदाता परिचय पत्र (वोटर आईडी) बनाया जा सके. जबकि उस समय इंटरनेट जैसी अन्य तकनीक का घोर अभाव था. फिर भी 2 साल के अंदर देश भर के लोगों का परिचय पत्र बना दिया गया. बस इच्छा शक्ति की जरूरत होती है किसी भी तरह के बदलाव के लिए.
4-कई विधानसभा क्षेत्रों में 8 से 10 हजार तक फर्जी वोटों की याचिका
मतदाता सूची में अपात्र या फर्जी नामों की मौजूदगी न केवल चुनावी प्रक्रिया को कमजोर करती है, बल्कि यह देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए भी खतरा पैदा कर सकती है. चुनाव आयोग को मिली शिकायतें और कोर्ट में दाखिल याचिकाओं में यह दावा किया गया है कि बिहार के कई विधानसभा क्षेत्रों में औसतन 8,000 से 10,000 फर्जी, डुप्लिकेट, या मृत व्यक्तियों के नाम मतदाता सूची में शामिल हैं.
