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पटना

छठ हो, करवाचौथ हो या तीज… क्यों और कैसे हमारे त्योहारों में महिलाएं ही मुख्य किरदार बन गईं!

Saroj Raja
Last updated: 2023/11/19 at 10:16 AM
Saroj Raja
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10 Min Read
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यह सच है कि सभ्यता के विकसित होने का घटनाक्रम ऐसा रहा है कि त्योहारों का जिम्मा स्त्रियों के ही हिस्से आया. नवरात्र, छठ, करवाचौथ, तीज, एकादशी और कई सारे व्रत-विधान और रीतियां महिलाएं ही करती रही हैं और आज भी कर रही हैं.
 
पर्व और व्रत में स्वयं शारीरिक कष्ट सहते हुए देव को प्रसन्न करने जो पॉपुलर कॉन्सेप्ट है उसका जिम्मा महिलाओं को ही उठाना पड़ा है. लेकिन ऐसा क्यों हुआ इस पर विचार करना जरूरी है. कहानी सैकड़ों साल पीछे से शुरू होती है. जब मनुष्य स्थायी बस्तियों में रहना शुरू कर चुका था. व्यापार का प्रांरभ हो चुका था.

भारतीय उपमहाद्वीप में तब आम आदमी के लिए जीविकोपार्जन का तीन मुख्य जरिया था- कृषि, वाणिज्य और सैनिकों का पेशा. घर गृहस्थी चलाने के लिए लोग खेती करते थे या जानवर पालते थे. जिंदगी बसर करने के लिए दूसरा जरिया था वाणिज्य-व्यापार. भारत मसालों, सिल्क, मलमल, सोना, कीमती पत्थर, हाथी के दांत, कृषि उपज, और मणि माणिक्य के व्यापार में अग्रणी था. 

जैसे-जैसे सभ्यताएं विकसित हुई,संसाधनों पर कब्जे के लिए दो नगरों के बीच टकराव शुरु हुआ. लिहाजा सुरक्षा की आवश्यकता महसूस हुई. इसी परिस्थिति में भारत में मार्शल रेस का विकास हुआ. ये वो आबादी थी जो स्टेट को अपनी सेवा देती थी और नगर/राज्य की ओर से लड़ने जाती थी. इस पेशे में जान का खतरा था लेकिन इस खतरे के साथ रुतबा और आमदनी भी अटैच था. इसलिए दमदार, दिलेर और बहादुर युवा इस पेशे में आ गए और ये जीवन-यापन का अच्छा जरिया साबित हुआ. 

भारत में सर्विस सेक्टर तो 30-40 साल पहले की चीज है. प्राचीन और मध्य भारत में सर्विस इंडस्ट्री के नाम पर ज्योतिष, चिकित्सा, वैध, कर्मकांड, पांडित्य, पुजारी, साहूकार, जैसे कुछ पेशे थे. लेकिन इस फील्ड में टिकने के लिए विशेष योग्यता की जरूरत थी. इसलिए इन क्षेत्रों में कुछ खास लोग ही काम कर पाते थे.

कृषि, व्यापार और सैन्य सेवा ये तीन ऐसे कोस थे जिनमें पुरुषों की भागीदारी मुख्य थी. ऐसा इसलिए भी था क्योंकि खेती-बारी को कुछ हद तक छोड़ दें तो बाकी के दोनों कामों में सुरक्षा अहम सवाल था. 

ये कहानी तब की है जब परिवार नाम की संस्था वजूद में आ चुकी थी. पुरुष घर से रोजी-रोटी कमाने निकले तो स्त्रियां और बच्चे घर में अकेले रह गए. वर्षा, बाढ़, तूफान, सूखा, नदी, सागर, महासागर, पर्वत, मरुस्थल, आग तब प्रकृति का कोई राज न मनुष्य समझता न ही इन पर उसका नियंत्रण था.

दिल्ली में छठ पूजा करती एक महिला (फोटो-AFP)

बाढ़, बारिश, आग, गर्जना, तूफान किसी भी चीज की अधिकता को वह देव और देवी का ‘क्रोध’ ही समझता था. पुरुष घर से बाहर थे और प्रकृति के कारनामों से भौचक स्त्रियां घर में भयभीत थीं. इसी परिस्थिति में स्त्रियों ने अपने पति-पिता, भाई और मित्र की सुरक्षा का भार अपने नाजुक कंधों पर ले लिया. 

इसके लिए सबसे आसान था उस अराध्य के शरण में जाना जो इन प्राकृतिक घटनाओं को नियंत्रित करता था. दीगर है कि इस समय तक इंद्र, देवता, जल, कृषि, वायु, सूर्य देवता की संकल्पना इंसान के जिज्ञासु मस्तिष्क में आकार ले चुकी थी.  

अपने स्वामी को घर से दूर भेज चुकी स्त्री ने अपने अराध्य देवता का आह्वान किया और कहा- हे देव, खेतों में काम कर रहे मेरे पति, बेटे को, विदेशों में व्यापार करने गए मेरे पति-भाई, बेटे को और राजा की सेना में लड़ रहे मेरे पति-पिता, भाई और मित्र की रक्षा करना. आपको प्रसन्न करने लिए मैं उपवास रखूंगी, व्रत करूंगी. जब इस स्त्री का स्वामी कई महीनों बाद व्यापार कर के घर लौटा, जब इस नारी का पति राजा का युद्ध लड़कर अपने परिवार के पास वापस आया तो ये मौका इस नारी के लिए उत्सव जैसा ही था. उसने अपने वादे पर अमल करते हुए स्वयं उपवास किया और पूजा में अपने पति-बच्चों को भी शामिल किया.  

सालों-साल चलते हुए ये उपवास, ये व्रत त्योहार भारतीय जीवन के कैनवस के खूबसूरत रंग बन गए. महिला की इस मन्नत ने उसके सगे-संबंधियों की कितनी रक्षा की, ये बहस का विषय हो सकता है, लेकिन उस नारी की अराधना निरंतर जारी रही.

तब खेती की प्रणाली इतनी विकसित न थी.सारा काम व्यक्ति को स्वयं और जानवरों के सहयोग से करना पड़ता था. इस वजह से पुरुषों का सारा दिन खेतों में गुजरता था. महिलाएं भी इस काम में सहयोग करती थी. लेकिन उनकी बॉयलॉजी, बच्चों का पालन-पोषण, भोजन पकाने का काम जैसे कई चीजें थीं जिनकी वजह से वे खेती में पूर्ण रूप से शामिल नहीं हो पाती थीं. 

एक महिला करीब करीब सूर्योदय से पहले दिन चढ़ने तक खेत में पति के साथ काम करती थी. इसके बाद उसे घर आकर स्नान-ध्यान के बाद दोपहर का खाना भी बनाना पड़ता था. होम मेकिंग में उसकी भूमिका पुरुष से कम नहीं थी. 

छठ पूजा (फोटो-AFP)

कौषीतकी उपनिषद में भी ऐसा ही एक श्लोक है. यहां एक स्त्री अग्निदेव का आह्वान करते हुए कहती है-

अग्ने, पवित्रं पवित्रं मे पतिं पाहि / यात्वम परावतः / न तम् हिनस्याङ्कशचना न मृत्युः / न बाधे न च रोगे न क्षुधा न क्षमा न तृष्णा / सर्वपापभिः प्रमोचयाग्निः स्वाहा।।

इसका अर्थ है- हे अग्नि, सभी प्राणियों के रक्षक, मैं आपसे प्रार्थना करती हूं कि आप मेरे पति की दूर की यात्रा पर उनकी रक्षा करें. उन्हें किसी भी दुर्भाग्य से पीड़ित न होने दें, चाहे बीमारी से, दुर्घटनाओं से, या दुश्मनों से. वह स्वस्थ और सुखीपूर्वक घर लौट आएं, उनका मार्ग आपके दिव्य प्रकाश से रोशन हो.

मनुस्मृति में भी कई प्रसंग हैं जहां महिलाएं दूर देश गए अपने पति के लिए चिंतित और व्याकुल दिखती हैं. 

मनुस्मृति के अध्याय 5 में इसका वर्णन है. इस श्लोक की व्याख्या करें तो यहां महिला देवता की आराधना करते हुए कहती है- हे देव, मेरे पति विजयी हों, वे सुरक्षित घर लौटें, वे सभी खतरों से दूर रहें, बीमारियों से दूर रहे. 

आगे वो महिला कहती है मैं भगवान से प्रार्थना करती हूं कि वे मेरे पति को सुरक्षित घर लाएं. मैं धर्म ग्रंथों में बताएं सभी व्रत और उपवास करूंगी. 

ये तो थी वैदिक भारत की बात. प्रार्थना और अराधना का ये सिलसिला आगे भी चलता रहा. भारत में मौर्य, शुंग, गुप्त आदि वंशों के दौरान व्यापार का और प्रसार हुआ, कई युद्ध लड़े गए. स्त्री सदा ही चिंतातुर रही और हमेशा ईश्वर के दरबार में हाजिरी लगाती रही. उसका गृहपति लौटता तो वह उत्सव मनाती, देवता के दरबार में जाकर अपनी मनौती पूरी करती. तो इसी तरह पर्व और व्रत चलन में आए.और महिलाएं इसकी वाहिका बन गईं. मृत्यु तो होती ही है. उस व्रती स्त्री का पति व्रत करने के बाद भी मर रहा था, लेकिन ये तो सृष्टि की रचना का विधान है. इस होनी को वो अपने भाग्य में बदा हुआ मानती थी. 

यही स्थिति उन परिवारों की थी जिनके घरवाले सेना में थे. इनका जीवन तो कई बार अनिष्ट, अपशकुन और आशंका भरी खबरें सुनने और विरह में कटता था. पिछले 3000 सालों में भारतीय उपमहाद्वीप ने कितने युद्ध देखे इसकी गणना तो शायद हो भी जाए. लेकिन इन युद्धों में कितने सैनिकों की मौतें हुईं इसका आकलन तो टेढ़ी खीर है. ऐसी स्थिति में वीर नारी (जिसका पति युद्धरत रहता था) के कॉन्सेप्ट से अलग एक कॉन्सेप्ट यह भी है कि इन सभी स्त्रियों के मन में अपने पति के जीवन की चिंता होती थी. 

मार्कण्डेय पुराण में एक जगह वर्णन है. यहां एक नारी इंद्रदेव की प्रार्थना करते हुए कहती है- इंद्र, देवानां राजन, मम पतिम् युद्धे शत्रुभ्यः सामर्थ्यं बलं च देहि।

यानी कि “हे देवताओं के राजा इंद्र, मेरे पति को युद्ध में अपने शत्रुओं का सामना करने के लिए साहस और शक्ति प्रदान करें. वह वीरता के साथ लड़ें और विजयी होकर हमारे परिवार और हमारे राजा को गौरवान्वित करें.”

तो इस तरह से उत्तर भारत में पर्व की परंपरा की शुरुआत हुई और महिलाएं इसकी प्रोटोगोनिस्ट बन गईं. 

ये महिलाएं अपने पति के जीवन के लिए देवी पार्वती और प्रबल समाजवादी देवता शिव के दरबार में भी जाती थीं.

रामचरित मानस में विवाह से पूर्व देवी सीता पार्वती की अराधना करने जाती हैं और राम के वरण का आशीर्वाद प्राप्त करती हैं. यही वजह है कि अविवाहित लड़कियां भी व्रत रखती हैं. 

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